Tuesday, July 22, 2014
अल्लाह की इबादत में 34 वर्षों से रोजा रख रहे रामनाथ
पटना | मो. जुनैद
नाम : रामनाथ। उम्र: 70 साल। स्थान: पटना सायंस काॠलेज के सामने सरदार जी निकिल दुकान। समय: संध्या 6 : 43। इंतजार : अजान होने का ताकि इफ्तार करें। कुछ देर बाद कानों में अल्लाह अकबर... (भगवान बहुत बड़ा है...) की आवाज आते ही खजूर से रोजा खोला और कहा, चलो! रोजा पूरा।
जी हां, अनेकता में एकता ही हमारे देश की शान व पहचान है। यहां मुस्लिम भाई कांवरियों को मदद करते और हिन्दू भाई न सिर्फ रोजेदारों की खातिरदारी करते हैं बल्कि रोजा भी रखते हैं। ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो आपसी भाईचारे और मजहबी मिल्लत की मिसाल पेश करते हैं। इन्हीं में से एक शख्स हैं रामनाथ सिंह। वह 34वर्षों से रमजान का रोजा रखते आ रहे हैं। वे कहते हैं भक्ति भावना से होती है और इबादत इतराने की चीज नहीं। कुरान की कई आयतें हमें भी जुबानी याद है, जिसका तर्जुमा यानी अनुवाद मुस्लिम दोस्तों से पूछता हूं तो वे अवाक रह जाते हैं।
खैर, दिल को जिससे चैन मिले, रूह को जिससे राहत पहुंचे, वही काम करने को जी चाहता है। वैसे भी तेरा खुदा या मेरा भगवान अलग तो नहीं। वह कहते हैं मैंने 1980 में पहली बार रोजा रखा। मुस्लिम भाइयों के साथ इफ्तार किया। बड़ा सुकून मिला। आंख, कान, नाक, मुंह यानी हर अंग का रोजा। एक महीने के रोजे से पूरे सालभर जीवन में शारीरिक और मानसिक बदलाव महसूस किया। छोटी सी गलती करने से पहले मन हजार बार सोचा। नतीजतन रोजा रखने का यह सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है। हां, बढ़ती उम्र ने अब तीस की जगह मेरे रोजे जरूर कुछ कम कर दिये हैं, जिसका हमें बहुत मलाल है। लेकिन, हर साल उसी जोश के साथ रमजान का रोजा रखता हूं कि पता नहीं अगले साल हमें रोजा नसीब हो या नहीं। कई बार देवघर जाने के दौरान भी रमजान का महीना आया, वह भी नागा नहीं गया।
नाम : रामनाथ। उम्र: 70 साल। स्थान: पटना सायंस काॠलेज के सामने सरदार जी निकिल दुकान। समय: संध्या 6 : 43। इंतजार : अजान होने का ताकि इफ्तार करें। कुछ देर बाद कानों में अल्लाह अकबर... (भगवान बहुत बड़ा है...) की आवाज आते ही खजूर से रोजा खोला और कहा, चलो! रोजा पूरा।
जी हां, अनेकता में एकता ही हमारे देश की शान व पहचान है। यहां मुस्लिम भाई कांवरियों को मदद करते और हिन्दू भाई न सिर्फ रोजेदारों की खातिरदारी करते हैं बल्कि रोजा भी रखते हैं। ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो आपसी भाईचारे और मजहबी मिल्लत की मिसाल पेश करते हैं। इन्हीं में से एक शख्स हैं रामनाथ सिंह। वह 34वर्षों से रमजान का रोजा रखते आ रहे हैं। वे कहते हैं भक्ति भावना से होती है और इबादत इतराने की चीज नहीं। कुरान की कई आयतें हमें भी जुबानी याद है, जिसका तर्जुमा यानी अनुवाद मुस्लिम दोस्तों से पूछता हूं तो वे अवाक रह जाते हैं।
खैर, दिल को जिससे चैन मिले, रूह को जिससे राहत पहुंचे, वही काम करने को जी चाहता है। वैसे भी तेरा खुदा या मेरा भगवान अलग तो नहीं। वह कहते हैं मैंने 1980 में पहली बार रोजा रखा। मुस्लिम भाइयों के साथ इफ्तार किया। बड़ा सुकून मिला। आंख, कान, नाक, मुंह यानी हर अंग का रोजा। एक महीने के रोजे से पूरे सालभर जीवन में शारीरिक और मानसिक बदलाव महसूस किया। छोटी सी गलती करने से पहले मन हजार बार सोचा। नतीजतन रोजा रखने का यह सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है। हां, बढ़ती उम्र ने अब तीस की जगह मेरे रोजे जरूर कुछ कम कर दिये हैं, जिसका हमें बहुत मलाल है। लेकिन, हर साल उसी जोश के साथ रमजान का रोजा रखता हूं कि पता नहीं अगले साल हमें रोजा नसीब हो या नहीं। कई बार देवघर जाने के दौरान भी रमजान का महीना आया, वह भी नागा नहीं गया।
Tuesday, July 15, 2014
चल चिलमन घर अपने
सर सज्दे में झुकाए , कब तक रहोगे यार।
दिल को सकून दिल से है ,
क्यों बहाये अशुअन की धार।
तन-मन को धोने से दामन धूल ना जायेगा।
चल चिलमन घर अब आपने,
परदेश में पाया बहुत पराया प्यार।
अहले सुबह । उनींदी आँखों में टूटे सपने समेटते चिलमन शहर से निकला गांव की ओर। इसलिए नहीं कि शहर से जी भर गया। बल्कि इसलिए कि शहर में सपना मर गया। शहर की तंग गलियों से लेकर मुख़र्जी नगर तक वर्षों दिन-रात क़िताबों में खोया रहा।सिरहाने प्रतियोगिता दर्पण,सीने पर जीके,जीएस की मोटी किताब।बाल सफ़ेद हुए,आँख की रौशनी कम हुई।सात फ़ेरे कब के पीछे छूट गए। ना बाप को कोई ख़ुशी दे पाया,न माँ को लाल-पीली बत्ती की सैर करा सका। अब तक़दीर पर ताना मारें या सी सेट को गाली बके,आखिर हासिल क्या होगा।
चिलमन के सपने से कितने के सपनों में जान थी। एक का सपना टूटा , कई की जिन्दगी बिखर गई।
दिल को सकून दिल से है ,
क्यों बहाये अशुअन की धार।
तन-मन को धोने से दामन धूल ना जायेगा।
चल चिलमन घर अब आपने,
परदेश में पाया बहुत पराया प्यार।
अहले सुबह । उनींदी आँखों में टूटे सपने समेटते चिलमन शहर से निकला गांव की ओर। इसलिए नहीं कि शहर से जी भर गया। बल्कि इसलिए कि शहर में सपना मर गया। शहर की तंग गलियों से लेकर मुख़र्जी नगर तक वर्षों दिन-रात क़िताबों में खोया रहा।सिरहाने प्रतियोगिता दर्पण,सीने पर जीके,जीएस की मोटी किताब।बाल सफ़ेद हुए,आँख की रौशनी कम हुई।सात फ़ेरे कब के पीछे छूट गए। ना बाप को कोई ख़ुशी दे पाया,न माँ को लाल-पीली बत्ती की सैर करा सका। अब तक़दीर पर ताना मारें या सी सेट को गाली बके,आखिर हासिल क्या होगा।
चिलमन के सपने से कितने के सपनों में जान थी। एक का सपना टूटा , कई की जिन्दगी बिखर गई।
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इश्क, इलेक्शन और इमोशनल अत्यचार।तीनों की कोई सीमा नहीं।जितना करो कम है,जितना सहो कम है।तीनों में सबकुछ जायज।तीनों का आगाज़ अच्छा लेकिन अंजाम...