Wednesday, November 20, 2013

जुबां पर लागा, लागा रे नमक कुरसी का

आदरणीय बाबू जी, सादर प्रणाम. आपको जान कर बेहद खुशी होगी कि राजनीतिक प्रदूषण में अब मेरा मन रमने लगा है. धमाके के बाद मैंने कहा था कि बंद कमरों में सांस घुटी जाती है और खिड़कियां खोलता हूं, तो जहरीली हवा आती है. लेकिन अब जुबां पर नमक कुरसी का लग गया है. नतीजतन इतनी बड़ी खुशी मिली कि पचा नहीं पा रहा हूं और बार-बार बाथरूम जा रहा हूं. बाबू जी, ज्यों-ज्यों ये जुबान फिसलत जात है, त्यों-त्यों राजनीतिक गलियारों से नित नये ऑफर आत हैं.
वैसे भी किसी पार्टी में कुछ बोलने के लिए या प्रवक्ता पद के लिए समझदारी व परिपक्वता की जरूरत तो है नहीं. बस शब्द-बाण ही सफल कैरियर का रामबाण है. आप टेंशन नहीं लीजिएगा. हम कोई ‘झूठ की खेती’ नहीं कर रहे हैं. न ही कागज पर कमाल दिखा कर और अधिक मेंटल हास्पिटल खोलने की नसीहत किसी को दे रहे हैं या फिर किसी के दिमागी हालात पर सवालिया निशान लगा रहे हैं. मुझे इतना पता है कि मेरा मानसिक संतुलन ठीक है, इसलिए तो दिल बार-बार कह रहा है कि जुबां पर लागा, लागा रे नमक कुरसी का.. नमक कुरसी का लगने से आंख-कान काम नहीं करते.
इसलिए एहसास ही नहीं होता कि हम किसको क्या कह दिये. दूसरी बात इसमें रिवर्स ब्रेक नहीं होता. इसलिए मामला घटने की बजाय बढ़ता ही जाता है. ताजा उदाहरण कभी एक ----दूसरे के सहयोगी रहे भाजपा-जदयू का है. रोज जुबान फिसल रही है. वैसे याद होगा कि 2010 में नितिन गडकरी को नमक कुरसी का लगा तो खूब जुबान चली. चंडीगढ़ की एक सभा में लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, सीबीआइ और कांग्रेस का लिंक जोड़ते हुए राजद व सपा सुप्रीमो की तुलना कुत्ता से कर दी. बाद में माफी भी मांग ली कि मुहावरे का इस्तेमाल किया था.
इसके बाद फिर जुबान चली और अफजल गुरु को फांसी देने में देरी पर देहरादून की रैली में कह दिया कि अफजल कांग्रेस का दामाद लगता है क्या?  इसके बाद मनीष तिवारी ने उन्हें मानसिक विक्षिप्त तक कहा. खैर,ज्यादा जुबान चलने के कारण वे राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से खुद चले गये. हाल के दिनों में जिस तरह हमारे व आपके प्रिय नेताओं की जुबान फिसल रही है, उससे लगता है कि नमक कुरसी का ज्यादा करामात दिखा रहा है. इसलिए किसी को कुछ भी कह कर निकल जाना उनका मौलिक अधिकार लगने लगा है, जबकि यही मामला गांव में होने पर लातम-जूता से लेकर हवालात तक की नौबत आन पड़ती है. खैर, बाबू जी पर्दा न उठाओ, पर्दे में रहने दो, पर्दा जो उठ गया, तो भेद खुल जायेगा. आप खुद का और जुबान का ख्याल रखियेगा. साथ ही ‘सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यं अप्रियं’, यानी ऐसा सत्य बोलो जो प्रिय लगे. लेकिन ऐसा सत्य नहीं बोलो जो अप्रिय लगे, का श्लोक हमेशा सिरहाने में रखियेगा.        
                                                                                                                                        -आपका चिलमन.

Saturday, November 16, 2013

बन्नो तेरा बर्थडे करोड़ों का रे..

मेरी प्यारी बन्नो! तुम जहां भी हो, जिस हाल में भी हो और जिसके साथ
भी हो, खुश रहना. तुम्हारे आशिक (पूर्व या वर्तमान, तुम जो मानो)
चिलमन ने एनआइए की टीम की तरह जगह-जगह छापेमारी की,
लेकिन तुम कहीं नहीं मिलीं. हर बात पर सहयोगी पार्टी की तरह रूठना
अच्छी बात नहीं. बर्थ-डे पर गुलाब का गुच्छा नहीं दिया, तो तुम नाराज
होकर फुर्र हो गयीं. अरे! कभी देश के ‘अमीर आदमी’ और ‘आम
आदमी’ में फर्क महसूस करो, तो पता चलेगा कि एक आदमी मंगल
पर मंगलमय है, तो दूसरा पीपल पेड़ के नीचे पापड़ बेल रहा है. न तुम
नीता अंबानी हो और न मैं मुकेश कि जोधपुर में गाना गाऊं- बन्नो तेरा
बर्थडे करोड़ों का रे, बन्नो तेरी टी पार्टी लाखों की रे.. न ही मैं बर्थडे
पर तुम्हारे लिए लंदन से झूला
और थाईलैंड से आर्किड के
फूल मंगवा सकता हूं. हम
गुलाब का गुच्छा तो क्या,
खाली गमला भी देने लायक
नहीं हैं. रात में सोचा कि फूलगोभी ही ले लूं, एक पंथ दो काज हो
जायेगा. लेकिन हरी सब्जी का दाम सुन कर सांस फूलने लगी. तुम्हें तो
पता ही है कि महंगाई के कारण दिल का मरीज हो गया हूं. खैर, बड़े
अरमान लिये घर लौटा था कि प्यार से पेट नहीं भरता, लेकिन दिल तो
बहलता है, इसलिए तुम्हें प्यार से वह गीत सुनाऊं जो अमूमन विवाह
के मौके पर गाया जाता है मसलन, बन्नो तेरी अंखिया सुरमेदानी, बन्नो
तेरा झुमका लाख का रे, बन्नो तेरा टीका है हजारी.. फिर सोचा कि
तुम कहोगे कि नीता अंबानी के बर्थ डे पर 220 करोड़ रुपये खर्च हुए
और एक बन्नो मैं जो हजार पर अटकी हूं. गरीबों का मजाक न उड़ाओ.
जानेमन! जरा सोचो, देश में एक तरफ ऐसे लोग हैं जो बर्थडे, टी पार्टी
व शादी समारोहों में करोड़ों रुपये खर्च करते हैं. आतिशबाजी के नाम
पर इजाजत मिले तो मिसाइल, रॉकेट क्या चीज है, एटम बम तक फोड़
सकते हैं. वहीं दूसरी तरफ ऐसे अमीर लोग भी हैं कि अपने बेटे, पोते
की शादी ऐसी सादगी से करते हैं कि लोगों को खबर तक नहीं होती.
अमीरों की आपस में क्या तुलना करना, मैं तो अमीर आदमी और आम
आदमी की बात बता रहा हूं. हम आम लोग अमूमन हर रोज भरपेट
खाना नहीं खाते. जिस दिन अच्छा खाना खाते हैं, तो उसे पर्व कहा
जाता है. खबर बनती है कि आज गरीबों ने भरपेट खाना खाया. और,
‘वे’ रोज जन्नती खाना खाते हैं और एक दिन या कुछ घंटे कुछ नहीं
खाते हैं, तो उसे उपवास पर बैठना कहते हैं और यह बड़ी खबर बनती
हैं. खैर, कोई जरूरी है कि बर्थडे पर करोड़ों लुटाये जायंे. शाही
सालगिरह पर अरबों रुपये फूंक दिये जायें. अरे बन्नो! प्यार, स्नेह,
अपनापन तो तब पता चलता है, जब मन की गहराई से कोई हाथ पकड़
कर कहे, आज कितनी अच्छे लग रही हो. आओ जुल्फों में जूही का
फूल लगा दूं. मैं ताउम्र ईमानदारी से तुम्हारे साथ रहूंगा.

झाड़ू, बाहरी कचरा और मतिमारी बम

सुबह-सुबह कर्कश आवाज कानों में पड़ी. ए भाई! जरा देख के चलो.
आगे ही नहीं, पीछे भी. दायें ही नहीं, बायें भी. ऊपर ही नहीं, नीचे भी..
एकबारगी ख्याल आया कि शायद मन्ना डे को कोई बेसुरा इनसान
श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है या फिर 1970 में आयी फिल्म मेरा नाम
जोकर देख कर भावुक हो रहा है. फिर सोचा, हो सकता है कि कुछ
बम, पटाखे मिस कर जाते हैं, लेकिन बाद में फूटते हैं और राहगीरों व
गरीबों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं, इसलिए सावधान किया जा रहा
है. धीरे-धीरे यह आवाज ‘नये-नये चौकीदार’ की तरह जागते रहो..
की तर्ज पर बहुत करीब आयी. मजबूरन बिस्तर से उठ कर घर से
निकला. देखता हूं कि चिलमन हाथ में झाड़ू लेकर चौराहेपर खड़ा है.
मैं बोला- हाथ में झाड़ू लेकर गला क्यों फाड़ रहे हो? चिलमन ने जवाब
दिया, इधर-उधर यानी बाहर
का कचरा साफ करना है.
सुशासन बाबू की बात सुन कर
घर से जोश के साथ निकला,
लेकिन चौराहे पर आकर कन्फ्यूज हो गया कि किधर का कचरा साफ
करूं और किस तरह का कचरा साफ करूं. हर तरफ, हर किस्म का
कचरा नजर आ रहा है. मैं बोला- भाई चिलमन! गंदगी घर के अंदर है
और सफाई करोगे बाहर? चिलमन बोला- यह बाह्य सौंदर्य का जमाना
है. बाहरी चमक-दमक पर ही हर कोई फिदा है. नमो गुजरात दंगे के
पीड़ितों के आंसू नहीं पोंछ पाये. दंगे में पूरे परिवार को खो देनेवाले
किसी मासूम को गोद नहीं ले पाये, क्योंकि घर की मुरगी दाल बराबर.
लेकिन बिहार में लाव-लश्कर के साथ आंसू पोंछने में कामयाब रहे.
आपको पता है कि मेरी बीवी कल कह रही थी कि निठल्ले! दिन भर
इधर-उधर मारे फिरते हो. क्यों नहीं रैली, मार्च या जुलूस में जाते हो?
हो सकता है कि कोई हादसा हमारी किस्मत का दरवाजा खोल दे. फिर
अहो भाग्य हमारे कि लाव-लश्कर संग मोदी हमारे घर पधारें. मैंने
समझाया कि डार्लिग! वोट की फसल की अभी बोआई हो रही है.
खाद-पानी के लिए आगे-आगे देखो होता है क्या? वैसे कुछ हादसे के
बाद से तो कचरे से बहुत डर लगने लगा है. न जाने किस वेश में
‘मतिमारी बम’ मिल जाये. मैं बोला यह कौन-सा बम है? चिलमन
बोला- भाई ! इसलिए तो गला फाड़ रहा हूं कि हर तरफ देख के चलो.
कौन किस रंग-रूप में है पता ही नहीं चलता है. धमाके के बाद बाप को
पता चलता है कि बेटा मतिमारी बम का शिकार था. नेता जी को खबर
नहीं कि भतीजा कब, कैसे इसकी गिरफ्त में आया. युवाओं के दिलदि
माग में मतिमारी बम प्लांट किया जा रहा है. इसे कौन, कब, कहां
और क्यों प्लांट कर रहा है, इसे कैसे डिफ्यूज किया जाये, इस पर कहीं
कोई बहस नहीं हो रही है. बस बहस छिड़ी है कि पटेल हमारे या तुम्हारे.
उनकी मूर्ति पर राजनीति गरम है. झाड़ू व कचरे पर कोहराम मचा है.

अरमानों का लुटना और रोटी सेंकना

1978 में आयी फिल्म गमन का गाना सीने में जलन, आंखों में तूफान
सा क्यों है. इस शहर का हर शख्स परेशान सा क्यों है.. सुन रहा था कि
चिलमन भाई की आमद हुई. बोले, तेरी आंखें नम हैं, तो मुङो क्या, तुङो
गम है, तो मुङो क्या? मैं तो लुंगी डांस करूंगा. मैं बोला, बेशर्म! वक्त
और हालात तो देखा कर. जिंदगी बेवक्त दगा दे गयी और हुंकार रैली
में कितनों के अरमान लुट गये. अभी भी दहशत में हैं लोग. चिलमन
बोले, गजब! हर तरफ हर कोई अपनी रोटी सेंकने में है और तुम
शहरयार साहब का कलाम सुन कर परेशान हो रहे हो. कहीं दीप जले
कहीं दिल. तुम दिल पर मत ले यार. दिल जलता है तो जलने दे, आंसू
न बहा फरियाद न कर. बस लुंगी डांस कर और अपनी रोटी सेंक. मैं
बोला, यार हम सब की भी कुछ जिम्मेवारी बनती है न! चिलमन बोले,
यार गृहमंत्री से भी ज्यादा जिम्मेवारी है क्या? पटनामें बम ब्लास्ट के
समय वे रज्जो के रंग में अपनी
रोटी सेंक रहे थे या नहीं. हुंकार
रैली में चीख-पुकार के
बावजूद कुछ लोग रोटी सेंके
या नहीं. गांधी मैदान में ब्लास्ट के बाद धुआं दिखा, तो एक नेता बोला,
उधर ध्यान मत दें, टायर फटा है. जब सब कुछ फट गया तो कोई रैली
सफल, तो कोई विफल पर अपनी रोटी सेंकने से बाज आये क्या?
मरनेवालों पर मातम कम और लाश पर रोटी ज्यादा सेंकी जा रही है.
घायलों के जख्म पर मरहम लगाने की जगह नफा-नुकसान का हिसाब
किया जा रहा है. भाई ! मरता भी आदमी है. मारता भी आदमी है, सब
रोटी सेंकने का नतीजा है. आखिरकार बेले जाते हैं बेगुनाह आम
अवाम. मैं कहता हूं कि क्या जरूरी है कि अपनी बात बड़ी रैली के
माध्यम से पहुंचायी जाये. इस शक्ति प्रदर्शन के खेल में किसका कितना
नुकसान होता है, यह कोई पार्टी नहीं बता सकती है. न ही कोई नेता
कभी नुकसान की भरपाई कर सकता है. यह तो आमजन ही बता
सकता है, जो एंबुलेंस की जगह कंधे पर प्रसूता को लेकर अस्पताल
पहुंचता है. गाड़ी छोड़ कर पैदल ऑफिस जाता है और लौटता है.
किसी की परीक्षा छूट जाती है. व्यवसायी दिन भर अनहोनी की आशंका
से अपनी दुकानें बंद रखता है. हुंकार रैली में बम ब्लास्ट के शिकार हुए
पीड़ित परिवार का कोई भी सदस्य अब कभी किसी रैली में जाकर प्रिय
नेता को सुनना पसंद करेगा? क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि महंगी व
खतरनाक रैली की जगह अपना संदेश नेतागण विभिन्न माध्यमों से
आमजन तक पहुंचायें. बम ब्लास्ट के बाद हालात ऐसे हो गये हैं कि
बाथरूम में भी जरा सी आहट होती है, तो दिल सोचता है कि कहीं ये
वो तो नहीं. एक तरफ एसपीजी, जेड श्रेणी सुरक्षा व बुलेट प्रूफ गाड़ी,
दूसरी तरफ क्या? इस हादसे ने दिल, दिमाग का हुलिया सहित सोचने
का नजरिया ही बदल दिया. अब आमजन कहते हैं कि बड़े नेताओं का
आना, रैली, जुलूस में शामिल होना यानी अरमानों का लुट जाना.

इश्क, इलेक्शन और इमोशनल अत्याचार

हमेशा सुबह-सुबह तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार.. सुननेवाले आज
चुपके -चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है.. सुन रहे हैं. बड़ी हैरत हुई,
इसलिए मैंने पूछा, क्यों भाई चिलमन! बुढ़ापे में आज बड़ा इमोशनल
हो रहे हैं? इतना सुनते ही गुस्से से उनकी त्योरियां चढ़ गयीं. दांत पीस
कर बोले, अच्छा! राजस्थान व मध्य प्रदेश की सभाओं में राहुल गांधी
ने जो मार्मिक कहानी सुनायी वह क्या है? माना कि इश्क,इलेक्शन
नचाये जिसको यार, वो फिर नाचे बीच बाजार.. लेकिन इमोशनल
अत्याचार? एक तरफ लोकसभा चुनाव, तो दूसरी तरफ विधानसभा
चुनाव. नतीजतन दिल्ली, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश व मिजोरम
की जनता से अचानक ग्रामीण से लेकर राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को
पहली नजरवाला नहीं, बल्कि सोचा-समझावाला इश्क हो गया है.
आमजन की कद्र माशूका की
तरह होने लगी है. प्याज,
पेट्रोल पर कंट्रोल नहीं और
जनता के लिए चांद-तारे तोड़
कर लाने की बातें की जाने
लगी हैं. याद रखो, इश्क और इलेक्शन में इमोशनल अत्याचार का
खेल खूब खेला जाता है. इनका आगाज अच्छा होता है, लेकिन
अंजाम के बारे में किक्रेट की तरह जब तक आखरी गेंद नहीं फेंकी
जाये, तब तक कुछ नहीं कह सकते. खैर, मनोरंजन के लिए देश के कई
हिस्सों में सर्कस का मैदान बन कर तैयार है. मदारी व जमूरे का खेल
देखने के लिए बस, ट्रेन व निजी वाहनों की बुकिंग चालू है. मंच पर
हल्ला बोल कॉमेडी भी देखने- सुनने को मिल रही है. कहीं युवराज,
माताश्री व दामाद जी निशाने पर हैं, तो कहीं विकास पुरुष व गुजराती
टाइगर की सीडी बांटी जा रही है. पीएम उम्मीदवार की नजर में बसने
के लिए जगह-जगह तोरण द्वार, बैनर, पोस्टर से तो शहर की सूरत ऐसी
हो जा रही है कि पता ही नहीं चल रहा है कि कौन नाला रोड है और
किधर कैनाल रोड है. पांच साल पहले हम भी इसके शिकार हुए थे. न
सूरत देखी, न सीरत. नेता जी के सात रंग के सपने में घर- परिवार छोड़
कर थाम लिया उनका झंडा. झंडे का पावर कहो या नेता जी का साथ.
मैं आसमान में सफर करने लगा. हर तरह का इमोशनल अत्याचार
किया और सहा. लेकिन जिनके लिए गांववालों का भरोसा तोड़ा, पांच
सौ से हजार रुपये प्रति फर्जी कार्यकर्ता लेकर गांधी मैदान व कारगिल
चौक पर भीड़ जुटायी, डांस, लजीज व्यंजन की व्यवस्था करायी,
इलेक्शन के समय वोटरों को लुभाने के लिए पानी से ज्यादा शराब की
आपूर्ति करायी, बोगस वोटिंग करा कर विजयी माला पहनायी, वही हम
सबको छोड़ कर किसी और का हो गया. जब जमीन पर पांव पड़े, तो
दिल के अरमां आंसुओं में बह गये और बाथरूम में हम सिसकते रहे
गये. अब तो इश्क, इलेक्शन का नाम सुनते ही दौरा पड़ने लगता है.
दरअसल, कुछ रोगों से निजात न दिव्य फार्मेसी की दवा दिला सकती
है और न आर्ट ऑफ लिविंग. ऐसे में बस यही म्यूजिक थेरेपी है.

पाचन तंत्र की नयी पाठशाला

चिलमन भाई आजकल दिन भर राग मालकौंस लागा चुनरी में दाग
छुपाऊं कैसे गाते रहते हैं. मानों इन्हीं को कैदी नंबर 1528,1529
आवंटित हुआ है. वैसे इशरत मामले की खबर के बाद कभी-कभार
आपका क्या होगा जनाबे अली.. भी गुनगुना लेते हैं. इधर, गुजरात में
हर तीसरा बच्च कुपोषित वाली रिपोर्ट से बहुत हैरान व परेशान हैं कि
आखिर क्या होगा इन नेता तुम्हीं हो कल के का? मैंने पूछा, भाई! इन
सबका मूल कारण क्या है? चिलमन भाई बोले, यह स्वर्णिम अर्थ युग
है. इसमें अर्थ के बिना किसी का कोई अर्थ (वजूद) नहीं. आप भोगवि
लास एक्सप्रेस में सफर कर रहे हैं या ‘इज्जत’ का मंथली पास बनाने
के लिए लाइन में लगे हैं. या फिर दुिखयारी लोकल ट्रेन का टिकट
लेकर इंतजार व सब्र की घड़ी में किस्मत को कोस रहे हैं. यह सब निर्भर
करता है आपके पाचन तंत्र पर. वजह दिल-दिमाग ही नहीं, जिंदगी व
जुल्म के सारे रास्ते पेट से
फूटते हैं. नतीजतन इस तंत्र
का मजबूत होना गंठबंधन
सरकार की तरह निहायत ही
जरूरी है. वरना जिस तरह
महाराष्ट्र में बिहारी को देखा जाता है, वैसे ही हर जगह आप देखे जायेंगे
और दुबले-पतले होने (सामाजिक स्थिति)के कारण विचित्र प्राणी
कहलायेंगे. क्योंकि पाचन तंत्र गड़बड़ होने की सूरत में आप समझ ही
नहीं पायेंगे कि पहले शौचालय जाना जरूरी है या देवालय. पहले
पुस्तकालय जायें या मदिरालय. बच्चे को पहले विद्यालय भेजें या
चित्रलय. खुद सचिवालय में कब्जा जमायें या अनाथालय में. दूसरी
अहम बात यह है कि इसका खामियाजा आपको भविष्य में निगरानी के
हत्थे चढ़ कर भी भुगतना पड़ सकता है, तो कभी आय कर वालों का
निशाना बनना पड़ सकता है. जैसे कि अभी एक एमवीआइ का हाल है.
इससे पहले भोजपुर में एक बीइओ 20 हजार रुपये पचा नहीं पाया.
भागलपुर की सीनियर एडीएम भी कमजोर पाचन शक्ति की शिकार हुइर्ं.
कई बीइओ, डीइओ से लेकर आइएएस दंपती (अरविंद जोशी-टीनू
जोशी जो तकरीबन साढ़े तीन अरब रुपये डकार गये) तक खराब
पाचन तंत्र के कारण अपनी नाक कटवा बैठे. कई लोग खराब पाचन
तंत्र के कारण ही तिहाड़, बेऊर व बिरसा मुंडा जेल की शोभा बढ़ा रहे
हैं. कई का कैरियर खत्म हुआ और होनेवाला है. इसलिए पाचन तंत्र की
पाठशाला सभी विभागों में लगनी चाहिए. अगर पाचन तंत्र मजबूत है
तो आप करोड़ों का चारा खा सकते हैं. अलकतरा पी सकते हैं. करोड़ों
का स्टांप साफ कर सकते हैं. किसानों का यूरिया हजम कर सकते हैं.
बेफोर्स हो या कोयला. टीबी मरीजों की दवा या फिर हाइवे की ईंट या
बालू-पत्थर. सब कुछ पचा सकते हैं. इंदिरा आवास निगल कर डकार
तक नहीं लेंगे. जय हो जन वितरण प्रणाली का नारा लगाते हुए ऊपर से
नीचे तक मैनेज नामक एक्सरसाइज कर दाने-दाने नहीं बल्कि बोरी-
बोरी पर अपना नाम स्वार्णाक्षर में लिखवा सकते हैं.

अलग चश्मों के अलग नजारे

एक बात पहले ही साफ कर दूं. अपना इरादा फिल्म मिस्टर इंडिया के
जादुई लाल चश्मे से दो-चार कराने का कतई नहीं है. न ही फिल्म
सुहाग में समीर साहब के बोल, गोरे-गोरे मुखरे पे काला-काला चश्मा
पर नुक्ताचीनी करने का. हम तो चाचा जी के चश्मे के बारे में बात करना
चाहते हैं. वर्षो पहले देखा कि गांव के छोटे-बड़े लोगों के अलावा
महिलाएं परदेस से आये संदेश, यानी चिट्ठी लेकर चाचा जी के पास
पहुंचतीं और कहतीं, जरा पढ़ दीजिए न! देखिए तो सब कुछ ठीक है
न? चाचा कहते, बेटा जरा चश्मा लाना तो. चश्मा लगाते ही चाचा
मानो भविष्यवक्ता हो जाते. इधर उनके होंठ हिलते, उधर सामने वाले
के चेहरे पर कभी खुशी के भाव, तो कभी तनाव. दिन भर मजमा लगा
रहता. कई लोगों ने चाचा को चुनौती देने का मन बनाया. शहर में जाकर
पढ़नेवाला चश्मा खोजा,
दुकानदार चश्मा देता. लोग
लगाते, लेकिन काला अक्षर
भैंस बराबर. लोग कहते कि
नहीं भाई! यह पढ़नेवाला
चश्मा नहीं है. चाचा जी के पास तो ऐसा चश्मा है कि उससे हर चीज
फटाफट पढ़ी जाती है. आखिरकार दुकानदार खीज कर कहता, साक्षर
होने से कुछ नहीं होता, शिक्षित होना पड़ता है. जाइये चाचा के चश्मे में
जरूर जादू होगा. लोग सिर पीट कर कहते कि हाय! कहां से लाऊं
चाचा का चश्मा. खैर, आज लोग शिक्षित हो गये. अब चाचाजान उम्र
के आखिरी पड़ाव पर हैं, लेकिन चश्मे की चमक बरकरार है. पिछले
दिनों मैंने पूछा इसकी वजह क्या है? उन्होंने कहा कि बेटा! मेरे पास कई
तरह के चश्मे हैं. सबका लेंस अलग-अलग है. मेरे पास तो
पॉलिटिकल चश्मा भी है. मैंने पूछा, यह क्या बला है? उन्होंने फरमाया,
इसे यों समझो. सुशील कुमार मोदी जब नीतीश जी के साथ थे, तो
बिहार में हर तरफ विकास दिख रहा था. इसका मतलब उस समय
उनके पास दूसरा चश्मा था यानी नीतीश जी टाइप का. आज अलग हुए
तो उनके चश्मे से क्या दिखता है? इसी तरह आडवाणी का चश्मा कभी
बताता था कि मोदी बेहतर लीडर हैं, लेकिन आज उनके चश्मे में उनका
फिगर पीएम के लिए फिट नहीं बैठता है, जबकि राजनाथ जी व सुशील
मोदी का चश्मा उनको केंद्र की कुरसी पर विराजमान देखता है. लालू
जी का चश्मा लगा कर देखो तो बिहार में विनाश दिखेगा और नीतीश
के चश्मे से देखोगे तो हर तरफ विकास दिखेगा. सोनिया जी का चश्मा
अलग है, तो मनमोहन व राहुल का चश्मा अलग. नमो के चश्मे की
बात ही निराली है. अपुष्ट खबरों से पता चला है कि इन नेताओं के
चश्मों का क्लोन इस बार लोस चुनाव में सभी कार्यकर्ताओं को जनता
में बांटने के लिए दिया जायेगा, ताकि कोई फील गुड महसूस करे, तो
कोई भारत निर्माण को निहारे. लेकिन महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे उन्हें
दिखाई नहीं दें. वैसे राज की बात बताऊं बेटा! चश्मे में गुण बहुत है
सदा राखियो संग, जब जहां जैसे जरूरत पड़े नैयन पर लियो चढ़ाए.

अजब बीमारी की गजब कहानी

चिलमन भाई को डॉक्टर ने अजीब तरह की बीमारी से पीड़ित बताया
है. वह कल ही ग्रामीण चिकित्सक सह पार्टी प्रवक्ता से चेकअप करा
कर लौटे हैं. उन्हें जैसे ही बताया गया कि आपको ‘चिलमेनाइटिस’ हो
गया है, चिलमन भाई गश खाते-खाते बचे. मुझे भी सुन कर अटपटा
लगा. वजह, डॉक्टर के मुंह से इस तरह का शब्द पहली बार सुनने को
मिला. हां, नेताओं के हालिया बयानों में कुछ अजीबोगरीब शब्द सुनने
को जरूर मिले हैं. मसलन- नमोनिया, नमोनाइटिस, सुमोसाइटिस,
नीतीशटाइटिस. मैंने अतीत में गोता लगाया, तो 1992 में आयी फिल्म
राजू बन गया जेंटलमैन का गाना जेहन में कौंधा- सर्दी, खांसी न
मलेरिया हुआ.. यानी प्रेम रोग के लिए शब्द सृजन हुआ ‘लवेरिया’.
बाद में भोजपुर गीतकारों ने इस रोग के लिए ‘लवलाइटिस’ शब्द का
इस्तेमाल किया. खैर, अतीत
से बाहर आकर डॉक्टर साहब
से पूछा, तो उन्होंने कहा, जिस
तरह डॉक्टर का लिखा हुआ
हर कोई नहीं समझ सकता है,
वैसे ही कुछ बीमारियां हैं, जो आप लोगों की समझ से परे हैं. मैंने कहा,
भाई क्यों नहीं समझ सकते? हम तकनीकी युग के आदमी हैं. सर्च इंजन
का सहारा लेकर बहुत काम निकाल लेते हैं. उन्होंने कहा, क्यों बेकार
की बातें करते हैं. कुछ दिनों पहले आडवाणी जी को नमोनिया हुआ.
आपको पता है कि यह क्या है? कब और कैसे लगती है यह बीमारी?
आपका गूगल कुछ बतायेगा क्या? अखबारों में पढ़ा होगा कि कुछ
भाजपा नेताओं ने कहा कि नीतीश जी को नमोनाइटिस हो गया. जवाब
में सुशासन के सिपाही ने कहा कि वे लोग नीतीश की लोकप्रियता से डर
गये हैं. उन्हें नीतीशटाइटिस हो गया है. अखबारों में छपने के लिए
अजब-गजब बयान देते रहते हैं. उन्हें छपेटाइटिस यानी छपास रोग है.
हर दिन अपना चेहरा अखबार में देखना चाहते हैं. इन तमाम रोगों के
बारे में आप कौन से सर्च इंजन का सहारा लेंगे. चिलमन भाई बोले, सब
समझता हूं. सारा खेल 2014 के लोकसभा चुनाव का है. साथ ही
मिशन 272 यानी केंद्र की कुरसी पर कब्जे के लिए जादुई आंकड़ा पार
करने का है. लेकिन आपने हमें ‘चिलमेनाइटिस’ क्यों बताया? डॉक्टर
साहब बोले, आज का दौर नयी-नयी बीमारियों का है. किसी को दिन-
रात ताक -झांक करने की बीमारी, जिसे नयन सेकुआ रोग या
नयनोसुखटाइटिस कहते हैं. किसी को जमीन-जायदाद हड़पने की, तो
किसी को दंगा भड़काने की, तो किसी को लाइव दंगा देखने की बीमारी
होती है. इनका एक ही फॉमरूला है कि स्वार्थ के लिए मेरी दीवार गिर
जाये तो गिर जाये, लेकिन पड़ोसी की भैंस जरूर मर जाये. यही केस है
आपका. चूंकि कई तरह की बीमारियां पहले से हैं, सो अब अजीब तरह
की बीमारियों का नामकरण लोगों के नाम पर किया जा रहा है. अभी
आसाराम बापू भी नयी-नयी बीमारियों का नाम लेकर जमानत मांग रहे
हैं. अब उनके नाम पर जल्द ही बीमारी का नामकरण होनेवाला है.

रुपया ज्यादा गिर रहा या इनसान?

और कितना गिरेगा रुपया? रुकेगा भी या गिरने का सिलसिला जारी ही
रहेगा. मंत्री महोदय मंथन कर रहे हैं. सोना गिरवी रखने की सोच रहे
हैं. चाय की चुसकी के साथ गरमा-गरम बहस अपने शबाब पर थी.
‘ज्ञान गौरव’ से लेकर ‘खिचड़ी प्रसाद’ यानी मास्टर जी से लेकर
मिड-डे मील के कर्मी तक अपनी बातें जोरदार तरीके से रख रहे थे.
चाय की दुकान पर बहस में शिरकत कर रहे एक बुजुर्ग ने कहा-
‘‘भाई! हमें तो चंद्रशेखर सरकार के समय की बात याद आ रही है,
जब सोना गिरवी रखना पड़ा था.’’ एक सज्जन ने कहा, ‘‘भाई आपको
पता है कि हम लोग सोना के लिए कितने पागल हैं. एक सर्वेक्षण के
अनुसार घरों व बैंकों में तकरीबन 15 हजार टन सोना लोगों ने जमा
कर रखा है. यह सोना 743 अरब डॉलर के बराबर है. अगर यह बाहर
आ जाये, तो इससे देश व
समाज का भला हो सकता है
या नहीं? गांव से लेकर शहर
तक में लोग सोने में निवेश
करते हैं. कोई जेवरात के नाम
पर, तो कोई भविष्य के नाम पर. उन्हें देश की आर्थिक व्यवस्था से कोई
लेना- देना नहीं. रुपया गिर रहा है, तो गिरे, पर सोने से प्रेम का धागा
टूटे नहीं. एक वह जमाना था, जब रुपये और डॉलर में ज्यादा अंतर
नहीं था. पांच रुपये बराबर एक डॉलर. और आज? क्या कहा जाये,
मानो रुपये की कोई औकात ही नहीं है.’’ इतने में एक दूसरे सज्जन
चीख पड़े- ‘‘आप लोग बेकार की माथापच्ची कर रहे हैं. कल मुट्ठी में
पैसा लेकर जाते थे, झोला भर सामान लाते थे, आज झोला भर रुपये
ले जाते हैं और मुट्ठी में सामान लाते हैं वगैरह, वगैरह. भाई! रुपया
कितना भी गिर जाये, लेकिन मैं दावे के साथ कहता हूं कि इनसान
जितना तो हरगिज नहीं गिरेगा. अखबारों की सुर्खियां देख लो. न्यूज
चैनल देखो. रोज इनसान कितना गिरता जा रहा है! वोट के बदले नोट.
संसद में सवाल पूछने के
लिए रुपये. महिला पत्रकार के साथ सामूहिक
बलात्कार, ससुर ने बहू को हवस का शिकार बनाया. पोते ने ले ली
दादा जी की जान. जमीन के लिए मां को मार डाला. शिक्षक ने की
छात्र के साथ छेड़खानी. मछली के पेट में हथियार रख करता था
तस्करी, मृत जवान के पेट में रखा बम. इन खबरों के बाद आप लोग
क्या कहेंगे? रुपया ज्यादा गिर रहा है, या फिर इनसान. जो किसी का
भक्त बनने के भी काबिल नहीं, उसे स्वार्थ के लिए भगवान बना देते
हो. फिर कोई हादसा होता है, तो कुछ लोग समर्थन में और कुछ लोग
विरोध में सड़कों पर उतर जाते हो. कुरसी पाने के लिए हर ईमान-धर्म
सबकी बलि चढ़ा देते हो. फिर कुरसी मिलते ही खुद को खुदा से कम
नहीं समझते.’’ चाय दुकान में सन्नाटा पसर गया. सभी ने सिर झुका
लिया. दुकानदार बोला, ‘‘अंकल! मुङो कवि प्रदीप का गाना याद आ
रहा है, देख तेरी संसार की हालत क्या हो गयी भगवान, कितना बदल
गया इनसान..’’

प्रेम गली सांकरी से फोर लेन हुई..

एक तो टेक्नोलॉजी युग में ताम्रपत्र (खत) भेजा है, ऊपर में चिपका
दिया है 1964 की फिल्म ‘संगम’ का गाना ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ कर तुम
नाराज न होना.. भला बताइए, ओपेन ओपीनियन के जमाने में हसरत
जयपुरी के बोल का सहारा लेने की क्या जरूरत? इस मशीनी युग में
प्रेम बचा है, न पत्र, तो फिर प्रेमपत्र किस चिड़िया का नाम है? वह
जमाना और था, जब प्रेमपत्र के किस्से लोग शौक से सुनते व सुनाते
थे. अब तो इस बारे में होंठ हिले नहीं कि लोगों के चेहरे लटक जाते हैं.
बहुत हमदर्दी है, तो फीकी मुस्कान फेंकेंगे, जो मुस्कान कम, दर्द की
दास्तान ज्यादा. कुछ लोग चवन्नी मुस्कान भी देते हैं. यह अलग बात है
कि अब रुपये पर भी संकट है, जबकि चवन्नी बेचारी तो पहले से बाजार
से बाहर है. खैर, अब न प्रेम की कोई कीमत, न पत्र का जमाना. हां,
कभी यह क्या शै थी, बड़े-
बुजुर्गो से पूछिए. क्या-क्या
पापड़ बेलते थे? एक-एक
शब्द ऐसे गढ़ते मानो सीने में
उतर गया. कोई लहू से
लिखता खत, तो कोई जाफरान से. इसे देने के लिए व पाने के बाद,
दोनों स्थिति में क्या हालत होती थी, कभी माजी में गोता लगा कर तो
देखिए. पिछले दिनों एक सेमिनार में एक सज्जन इस मौजूं पर बोलते-
बोलते फिसले और एक सांस में कह डाला कि ये गोदना, स्टिकर और
टेटू बेवजह व बेजगह क्यों? प्रेमगली अति सांकरी.. इस पर पड़ोसी
बरस पड़े. भाई काहे को अति सांकरी.. अब हर जगह विकास की
बयार बह रही है. जमीन व आसमान भी अछूते नहीं, तो प्रेम और पत्र
किस खेत की मूली है. अब तो यह फोरलेन से कम नहीं है. गजब का
चौड़ीकरण हुआ. घर में सिम वन कॉलिंग, बाहर सिम टू और ऑफिस
में मल्टीपल सिम कॉलिंग. दूसरी तरफ एसएमएस, मेल, चैट व
फेसबुक. पड़ोसी ने अमीर खुसरो को भी आड़े हाथ लिया. आ पिया इन
नैनन में, पलक ढांक तोहे लूं, न मैं देखूं गैर को न तोहे देखन दूं.. क्यों
भाई, खुसरों को क्या आपत्ति थी? मोहब्बत में मतलबपरस्ती ठीक नहीं.
दिल साफ होना चाहिए, प्यार में पाबंदी नहीं. खैर,कभी डाक बाबू को
देख कर बारह मांसपेशियों की कसरत हो जाती थी. हाथ में लिफाफ
और दिल करता धक -धक.. बीपी कभी हाई, तो कभी लो. खत पढ़
कर हंस पड़े तो शरीर की 72 मांसपेशियां हरकत में आ जाती थीं.
लेकिन अब तो चंद शब्द कंपोज कर सेंड किया, संदेश पहुंचा सात
समंदर पार. न मांसपेशियों को तकलीफ, न ही इमोशनल होने की
जरूरत. अब तो संवेदना जगाने के लिए लोग तरह-तरह के जतन करते
हैं. योग के साथ गोलियां भी लेते हैं. ऑफिस में कर्मचारी कहते हैं कि
साहब, आपसे नहीं, मेल से डर लगता है. कुछ हुआ नहीं कि मेल ठोंक
दो. तकनीक ने बहुत कुछ दिया, तो बहुत कुछ लिया भी. बस जो
जज्बात बचे हैं, वही जिंदा रहें, तो काफी है.

प्रेम रैली की तैयारी और चौथा मोरचा


बिल्कुल बौरा गये हैं चिलमन भाई. कल कह रहे थे कि सपने में बेवक्त
बाबा वेलेंटाइन आये और बोले- ‘‘वत्स्! बसंत से पहले प्रेम रैली की
तैयारी करो और चौथा मोरचा बनाओ. देश की बेबस जनता टकटकी
लगाये है. भज्जी का दूसरा, तीसरा से काम नहीं चलनेवाला. अध्यादेश
फटने के बाद लोग चौथा देखना चाहते हैं.’’ चिलमन भाई घबरा कर
बोले- ‘‘वो तो ठीक है बाबा, लेकिन प्रेम रैली?’’ बाबा बोले- ‘‘क्यों,
हुंकार रैली, खबरदार रैली, चेतावनी रैली, जनाक्रोश रैली, पोल खोल
रैली, अधिकार रैली, सद्भावना रैली वगैरह हो सकती है, तो इसमें
क्या आपत्ति है. वैसे भी भारत कृषि प्रधान ही नहीं, रैली प्रधान देश भी
है. यहां टमटम-ठेला रैली से लेकर तेल पिलावन, लाठी घुमावन रैली
तक होती है. कुरसी के लिए कुछ भी करेगा के तर्ज पर लोग आज क्या
नहीं करते हैं? रैली से आमजन की परेशानी कितनी बढ़ जाती है, यह
किसी को बताने की जरूरत है
क्या? मरीज एंबुलेंस में
तड़पता है तो तड़पे, स्कूली
बच्चे पानी को तरस रहे हों तो
तरसें या फिर भूखे पेट बिलख रहे हों, तो बिलखें, लेकिन ये नेता-
कार्यकर्ता जन भावनाओं के साथ रैली का खेल खेलने से बाज नहीं
आनेवाले. खैर, प्रेम रैली इन सबसे हट कर करो, ताकि किसी को कोई
तकलीफ न हो. इसमें गुजरात से आकर बिहार में हुंकार भरने की
जरूरत नहीं है. न ही बिहार से दिल्ली जाकर अधिकार जताने की
जरूरत.’’ चिलमन भाई बोले- ‘‘बाबा! कौन करेगा मेरा समर्थन?’’
बाबा बोले- ‘‘नासमझ! तुम प्रेम पार्टी बनाओ. सोशल मीडिया का
सहारा लो. तुम मजनूं व माशूका मंच गठित करो. निर्मल दरबार नहीं,
दीवाना दरबार लगाओ. देश भर में प्रेम प्रकोष्ठ बनाओ. लोग आज नमो
टी स्टॉल खोल रहे हैं, तुम देव-पारो टी स्टॉल लगाओ. नैन मटक्का
जेनरल स्टोर खोलो. प्रेम पाठशाला लगा कर सदस्यता अभियान
चलाओ. कौन आदमी हमारा मतदाता नहीं होगा? तीसरी पीढ़ी से
लेकर एक पांव कब्र में रखनेवाला तक हमारा कैडर वोटर है. तुमने
सुना नहीं कि इश्क से कोई बशर नहीं खाली, इसने कर दिया कितने घर
के घर खाली.. खैर, सदस्यता अभियान के बाद आसाराम बाप-बेटा
जैसे आस्था के सौदागर को भी जोड़ना ताकि चौथा मोरचा बनाने में
कोई दिक्कत पेश नहीं आये.’’ चिलमन बोले, ‘‘बाबा प्लीज! एक तो
दागी, ऊपर से न्यायिक हिरासत बढ़ती ही जा रही है.’’ बाबा बोले,
‘‘वत्स! राज्य हो या केंद्र सरकार, कहां दागी लोग नहीं हैं. बस इतना
समझो कि सरकार चलाने के लिए ये दाग अच्छे हैं. रही बात ‘राइट टू
रिजेक्ट’ की, तो कितने लोग इसका इस्तेमाल करेंगे? इसके अलावा
घोषणापत्र में कुछ खास शामिल करना. लैपटॉप, आइपॉड नहीं,
युवाओं को केबिननुमा साइबर सुविधा देंगे. घूस, भ्रष्टाचार खत्म करने
के लिए गुप्तदान महादान का का नारा देंगे. रामराज का सपना दूर है,
लेकिन प्रेम राज तो साकार कर लो.’’