Monday, September 12, 2016

कुर्बानी


पेशोपेस में हूँ परवरदिगार। क्या करूं कुर्बान।अपनी प्यारी कोई चीज़ नहीं। और किसी की गर्दन पर छुरी चलाना तो तुम्हें भी कबूल नहीं।कौन किसकी और क्यों तेरे नाम पर छुरी चला रहा है तू जाने और वो जाने। मैंने पहले सच को कुर्बान किया था। बचपन में यही प्यारा था।कहीं कोई मामला फंसता तो लोग कहते कि तुम बताओ , क्या है माजरा ? एक सच ने इमाम साहब की दोस्ती में दरार डाल दी।तब इमाम साहब ने डाँटकर कहा था कि माना पीर के पोते हो।एक -दो झूट बोलने से जहन्नम में नहीं चले जाते।एक बार मास्टर साहब ने भी नाराज़गी जताते हुए कहा था कि सच बोलते हो इसलिए जुबां में तासीर है लेकिन मेरे मामले में झूठ बोल देते तो वाक सिद्दी खत्म नहीं हो जाती।दाद देने वाले धीरे-धीरे लोग सच से कतराने लगे।दांत दुश्मन हुए तो मुख में छाले पड़ने लगे। आख़िरकार  इसकी कुर्बानी दे दी।अब कोई गंभीर बात भी कहो तो लोग कहते हैं सच में ! कहो कुरआन कसम।अपने भी कहते मेरे सिर पर हाथ रखकर कहो ...।
खैर।इसके बाद प्यार की कुर्बानी।खुद प्यार किया।खुद अपनाया।खुद शिया-सुन्नी के नाम पर कुर्बान कर दिया। मोहतरमा के भाई ने बहन से कहा कि गैर मज़हब वालों को तेरा हाथ दे सकता हूँ पर शिया की लड़की सुन्नी के हाथ, कतई कबूल नहीं।वैसे भी अभी बच्ची हो और अम्मा हार्ट की मरीज़ हैं।आगे तुम दोनों की मर्ज़ी।दो नादान बच्चे मिले।आँसुओं से सने सपने को समेटा।मन मज़बूत किया।समझदार समाज और हार्ट मरीज़ माँ के लिए प्यार की कुर्बानी का दिन मुकर्रर हुआ।अल्लाह को प्यारी है कुर्बानी कह बकरीद में पहली नज़र का नज़राना खुदा को पेश कर अलविदा...।अब तो एक ही चीज़ बची है।इंसानियत का जिक्र छिड़ते कान खड़े हो जाते हैं।होंट कांपने लगते हैं। कहीं कुछ गड़बड़ी की आशंका से ह्रदय में हलचल होती है। लोग कहते हैं कि इसे कुर्बान कर दीजिए। वरना प्रगति पथ पर पीछे रह जायेंगे। इंशाअल्लाह। कुर्बानी पड़ेगी।लेकिन इसे अभी कुछ खिलाकर खुश कर दूं।ज़बह तो एकदिन इसे भी होना ही है।

Wednesday, September 7, 2016

गोबर ज्ञान


साहेबान, मेहरबान, कदरदान।लोकल लफरों को लात मारिये।ये आपके बूते की बात नहीं।मुखिया मस्त है।विधायक से बहस नहीं और सांसद से सवाल नहीं। आदर्श ग्राम योजना की तरह विकास कार्य प्रगति पर है, कृपया जीवन की गाड़ी धीरे चलाएं।तबतक दुनिया की सबसे बड़ी ऑनलाइन गोबर पातिये प्रतियोगिता में आइए।अपना हुनर दिखाइए। कौन कितना झेला। किस- किस को कितना झेलाया। किसके झोले में कितना झोल है, झट से झारिये। और जो जहाँ जिस हाल में हैं वहीँ खूब गोबर पातिये।
ईनाम ? लाइक, शेयर और कमेंट्स के अलावा खुदा मेहरबान तो गदहा पहलवान। ख़ैर।ठीक से सुन और समझ लीजिये।नेताओं की तरह कालिख नहीं पोतना है, गोबर पातना है।वह भी ज्ञान का।
कोई शर्त नहीं कि गोबर पतंजलि का ही हो। अपना, पराया, खेत- खलिहान, गांव या शहर कहीं का और किसी का भी चलेगा।बस गोबर ज्ञान हो और आप इसे पातने में निपुण हों।चूँकि इस गोबर के गोइठे से पेट की आग नहीं बुझानी है।सिर्फ देश, समाज में धुआं अधिक करवाना है ताकि अश्रु गोला की तरह भीड़ पर इस्तेमाल हो सके।और आपस में आग लगानी या सुलगानी है।शेष जहां तक आपकी समझ सफ़र कर सके। याद रहे, निपुणता ही बेहतर पोजीशन दिला सकती है मौजूदा बाजार में।किसी के दिल-दिमाग में या सत्ता पक्ष या विपक्ष में। बस ध्यान रहे कि गोबर ऐसे पातिये कि मनचाहा पद से पद्मश्री तक मिल जाये।
न ऐसे पातिये कि मिली कुर्सी भी खिसक जाये। या फिर जेल में बेगुनाह सड़ जाएँ।
एक बात और कि सिर्फ गोबर पातना चाइये कि नहीं चाइए में समय बर्बाद न करें।यह खुला मंच है।यहां मन की बात की भी मरम्मत होगी। अब देर किस बात की।मैंने गोबर पाता अब आप लोग भी पातिये..

न प्रेम रहा न पत्र


ए दोस्त।दोस्ती का वास्ता।मुख न मोड़ना।आज उस गुरु को भी नमन करना, जिसने तेरा ताम्रपत्र यानी प्रेमपत्र पकड़ा था। प्रेम और पत्र दोनों चबा गए थे ताकि कहीं खून खराबा न हो जाए।मास्टर साहब को पता था कि मशीनी युग में न प्रेम रहेगा और न पत्र।हाँ दोनों का विकास बहुत होगा।सच में विकास की बयार बही और प्रेमगली अति सांकरी से फोरलेन हो गयी। गज़ब का चौड़ीकरण हुआ प्रेम का और पत्र का भी। तभी तो टैटू और स्टीकर बेवजह और बेजगह है। घर में सिम वन कॉलिंग।बाहर सिम टू कॉलिंग।और ऑफिस में मल्टीपल सिम कालिंग। व्हाट्सएप्, फेसबुक, ट्विटर, मेल, मैसेंजर के बाद जिओ जीभर के । इधर, अमीर खुसरो भी लपेटे में हैं।आ पिया इन नैनन में, पलक ढाँक तोहे लूं, न मैं देखूँ गैर को न तोहे देखन दूं पर आपत्ति है कि मोहब्बत में मतलबपरस्ती ? प्यार में पाबंदी ? आप भी जीभर देखिए।हमें भी नैन सेंकने दीजिए।दस मिनट का हो या दो मिनट का।आपका हो या बाप का।अरे कहां भटक गये।कुछ याद आया।पहली दफे तो ट्राई के लिए सादा कागज़ ही फेंका था फिर भी उसे देखकर मुस्कुराने से चेहरे की बारह मांसपेशियों की कसरत हो गयी थी।वो सादा कागज़ का कमाल था कि बीपी कभी हाई तो कभी लो।अचानक हँसा तो शरीर की 72 मांसपेशियां हरकत में आ गयी थीं।
अब तो चंद शब्द कम्पोज कर सेंड किया और संदेश पहुंचा सात समंदर पार।न मांसपेशियों को तकलीफ़ और न कोई इमोशनल लोचा। जज़्बात जगाने को भी जतन करने पड़ते हैं।बस जो जज्बात बचे हैं, वही जिन्दा रहे तो काफी है।आखिर में उस मास्टर साहब को नमन जो अक्सर कहते थे
हम इश्क के बंदे हैं, मज़हब से नहीं वाकिफ
गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या!