एक तो टेक्नोलॉजी युग में ताम्रपत्र (खत) भेजा है, ऊपर में चिपका
दिया है 1964 की फिल्म ‘संगम’ का गाना ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ कर तुम
नाराज न होना.. भला बताइए, ओपेन ओपीनियन के जमाने में हसरत
जयपुरी के बोल का सहारा लेने की क्या जरूरत? इस मशीनी युग में
प्रेम बचा है, न पत्र, तो फिर प्रेमपत्र किस चिड़िया का नाम है? वह
जमाना और था, जब प्रेमपत्र के किस्से लोग शौक से सुनते व सुनाते
थे. अब तो इस बारे में होंठ हिले नहीं कि लोगों के चेहरे लटक जाते हैं.
बहुत हमदर्दी है, तो फीकी मुस्कान फेंकेंगे, जो मुस्कान कम, दर्द की
दास्तान ज्यादा. कुछ लोग चवन्नी मुस्कान भी देते हैं. यह अलग बात है
कि अब रुपये पर भी संकट है, जबकि चवन्नी बेचारी तो पहले से बाजार
से बाहर है. खैर, अब न प्रेम की कोई कीमत, न पत्र का जमाना. हां,
कभी यह क्या शै थी, बड़े-
बुजुर्गो से पूछिए. क्या-क्या
पापड़ बेलते थे? एक-एक
शब्द ऐसे गढ़ते मानो सीने में
उतर गया. कोई लहू से
लिखता खत, तो कोई जाफरान से. इसे देने के लिए व पाने के बाद,
दोनों स्थिति में क्या हालत होती थी, कभी माजी में गोता लगा कर तो
देखिए. पिछले दिनों एक सेमिनार में एक सज्जन इस मौजूं पर बोलते-
बोलते फिसले और एक सांस में कह डाला कि ये गोदना, स्टिकर और
टेटू बेवजह व बेजगह क्यों? प्रेमगली अति सांकरी.. इस पर पड़ोसी
बरस पड़े. भाई काहे को अति सांकरी.. अब हर जगह विकास की
बयार बह रही है. जमीन व आसमान भी अछूते नहीं, तो प्रेम और पत्र
किस खेत की मूली है. अब तो यह फोरलेन से कम नहीं है. गजब का
चौड़ीकरण हुआ. घर में सिम वन कॉलिंग, बाहर सिम टू और ऑफिस
में मल्टीपल सिम कॉलिंग. दूसरी तरफ एसएमएस, मेल, चैट व
फेसबुक. पड़ोसी ने अमीर खुसरो को भी आड़े हाथ लिया. आ पिया इन
नैनन में, पलक ढांक तोहे लूं, न मैं देखूं गैर को न तोहे देखन दूं.. क्यों
भाई, खुसरों को क्या आपत्ति थी? मोहब्बत में मतलबपरस्ती ठीक नहीं.
दिल साफ होना चाहिए, प्यार में पाबंदी नहीं. खैर,कभी डाक बाबू को
देख कर बारह मांसपेशियों की कसरत हो जाती थी. हाथ में लिफाफ
और दिल करता धक -धक.. बीपी कभी हाई, तो कभी लो. खत पढ़
कर हंस पड़े तो शरीर की 72 मांसपेशियां हरकत में आ जाती थीं.
लेकिन अब तो चंद शब्द कंपोज कर सेंड किया, संदेश पहुंचा सात
समंदर पार. न मांसपेशियों को तकलीफ, न ही इमोशनल होने की
जरूरत. अब तो संवेदना जगाने के लिए लोग तरह-तरह के जतन करते
हैं. योग के साथ गोलियां भी लेते हैं. ऑफिस में कर्मचारी कहते हैं कि
साहब, आपसे नहीं, मेल से डर लगता है. कुछ हुआ नहीं कि मेल ठोंक
दो. तकनीक ने बहुत कुछ दिया, तो बहुत कुछ लिया भी. बस जो
जज्बात बचे हैं, वही जिंदा रहें, तो काफी है.
दिया है 1964 की फिल्म ‘संगम’ का गाना ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ कर तुम
नाराज न होना.. भला बताइए, ओपेन ओपीनियन के जमाने में हसरत
जयपुरी के बोल का सहारा लेने की क्या जरूरत? इस मशीनी युग में
प्रेम बचा है, न पत्र, तो फिर प्रेमपत्र किस चिड़िया का नाम है? वह
जमाना और था, जब प्रेमपत्र के किस्से लोग शौक से सुनते व सुनाते
थे. अब तो इस बारे में होंठ हिले नहीं कि लोगों के चेहरे लटक जाते हैं.
बहुत हमदर्दी है, तो फीकी मुस्कान फेंकेंगे, जो मुस्कान कम, दर्द की
दास्तान ज्यादा. कुछ लोग चवन्नी मुस्कान भी देते हैं. यह अलग बात है
कि अब रुपये पर भी संकट है, जबकि चवन्नी बेचारी तो पहले से बाजार
से बाहर है. खैर, अब न प्रेम की कोई कीमत, न पत्र का जमाना. हां,
कभी यह क्या शै थी, बड़े-
बुजुर्गो से पूछिए. क्या-क्या
पापड़ बेलते थे? एक-एक
शब्द ऐसे गढ़ते मानो सीने में
उतर गया. कोई लहू से
लिखता खत, तो कोई जाफरान से. इसे देने के लिए व पाने के बाद,
दोनों स्थिति में क्या हालत होती थी, कभी माजी में गोता लगा कर तो
देखिए. पिछले दिनों एक सेमिनार में एक सज्जन इस मौजूं पर बोलते-
बोलते फिसले और एक सांस में कह डाला कि ये गोदना, स्टिकर और
टेटू बेवजह व बेजगह क्यों? प्रेमगली अति सांकरी.. इस पर पड़ोसी
बरस पड़े. भाई काहे को अति सांकरी.. अब हर जगह विकास की
बयार बह रही है. जमीन व आसमान भी अछूते नहीं, तो प्रेम और पत्र
किस खेत की मूली है. अब तो यह फोरलेन से कम नहीं है. गजब का
चौड़ीकरण हुआ. घर में सिम वन कॉलिंग, बाहर सिम टू और ऑफिस
में मल्टीपल सिम कॉलिंग. दूसरी तरफ एसएमएस, मेल, चैट व
फेसबुक. पड़ोसी ने अमीर खुसरो को भी आड़े हाथ लिया. आ पिया इन
नैनन में, पलक ढांक तोहे लूं, न मैं देखूं गैर को न तोहे देखन दूं.. क्यों
भाई, खुसरों को क्या आपत्ति थी? मोहब्बत में मतलबपरस्ती ठीक नहीं.
दिल साफ होना चाहिए, प्यार में पाबंदी नहीं. खैर,कभी डाक बाबू को
देख कर बारह मांसपेशियों की कसरत हो जाती थी. हाथ में लिफाफ
और दिल करता धक -धक.. बीपी कभी हाई, तो कभी लो. खत पढ़
कर हंस पड़े तो शरीर की 72 मांसपेशियां हरकत में आ जाती थीं.
लेकिन अब तो चंद शब्द कंपोज कर सेंड किया, संदेश पहुंचा सात
समंदर पार. न मांसपेशियों को तकलीफ, न ही इमोशनल होने की
जरूरत. अब तो संवेदना जगाने के लिए लोग तरह-तरह के जतन करते
हैं. योग के साथ गोलियां भी लेते हैं. ऑफिस में कर्मचारी कहते हैं कि
साहब, आपसे नहीं, मेल से डर लगता है. कुछ हुआ नहीं कि मेल ठोंक
दो. तकनीक ने बहुत कुछ दिया, तो बहुत कुछ लिया भी. बस जो
जज्बात बचे हैं, वही जिंदा रहें, तो काफी है.
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